होली को ईद-ए-गुलाबी कहते थे मुगल, कैसे खेलते थे रंगों का ये त्योहार
इंडिया न्यूज़ 30
मुगल शासकों के दौर में होली को ईद-ए-गुलाबी कहा जाता था. तब महलों में फूलों से रंग बनाकर हौदों में भरे जाते, पिचकारियों में गुलाबजल और केवड़े का इत्र डलता. बेगमें-नवाब और प्रजा साथ मिलकर होली खेलती थी.
मुगलों की होली (फाइल फोटो)ई
हाइलाइट्स
होली के रोज अकबर अपने किले से बाहर आते थे और आम-ओ-खास सबके साथ होली खेला करते थे
जहांगीर ने होली को ईद-ए-गुलाबी (रंगों का त्योहार) और आब-ए-पाशी (पानी की बौछार का पर्व) नाम दिया
बहादुर शाह जफर सबसे आगे निकले. उन्होंने होली को लाल किले का शाही उत्सव बना दिया.
आज होली का त्योहार है. रंगों का ये पर्व सदियों से देश में खेला जाता रहा है. इसकी जड़ें प्रह्लाद और होलिका से जुड़ी है तो भगवान कृष्ण ने ब्रज में जो होली खेली, उसने इसे एक नई पहचान दी. क्या मुगल बादशाह भी होली खेलते थे. इतिहासकारों ने मुगलकालीन होली के बारे में खूब लिखा है.
मुगल राजाओं की बात करें तो होली का जिक्र लगभग हर शासक के काल में दिखता है. 19वीं सदी के मध्य के इतिहासकार Munshi Zakaullah ने अपनी किताब Tarikh-e-Hindustani में लिखा है कि कौन कहता है, होली हिंदुओं का त्योहार है! जकुल्लाह मुगलों के वक्त की होली का वर्णन करते हुए बताते हैं कि कैसे बाबर हिंदुओं को होली खेलते देखकर हैरान रह गया था. लोग एक-दूसरे को उठाकर रंगों से भरे हौद में पटक रहे थे. बाबर को ये इतना पसंद आया कि उसने अपने नहाने के कुंड को पूरा का पूरा शराब से भरवा दिया.
इसी तरह Ain-e Akbarithat में अबुल फजल लिखते हैं कि बादशाह अकबर को होली खेलने का इतना शौक था कि वे सालभर तरह-तरह की ऐसी चीजें जमा करते थे, जिनसे रंगों का छिड़काव दूर तक जा सके. होली के रोज अकबर अपने किले से बाहर आते थे और आम-ओ-खास सबके साथ होली खेला करते थे.
होली के रोज अकबर अपने किले से बाहर आते और सबके साथ होली खेला करते थे
होली में अगर आंखों में चला जाए रंग तो कॉटन कपड़े का ऐसे करें इस्तेमाल
होली में अगर आंखों में चला जाए रंग तो कॉटन कपड़े का ऐसे करें इस्तेमाल
सजती थी संगीत सभा
Tuzk-e-Jahangiri में जहांगीर की होली की बात मिलती है. गीत-संगीत के रसिया जहांगीर इस दिन संगीत की महफिलों का आयोजन करते, जिसमें कोई भी आ सकता था. वे हालांकि प्रजा के साथ बाहर आकर होली नहीं खेलते थे, बल्कि लाल किले के झरोखे से सारे आयोजन देखते थे. उन्हीं के काल में होली को ईद-ए-गुलाबी (रंगों का त्योहार) और आब-ए-पाशी (पानी की बौछार का पर्व) नाम दिए गए.
बना दिया शाही उत्सव
शाहजहां के दौर में होली वहां मनाई जाती थी, जहां आज राजघाट है. इस रोज शाहजहां प्रजा के साथ रंग खेलते थे. बहादुर शाह जफर सबसे आगे निकले. उन्होंने होली को लाल किले का शाही उत्सव बना दिया. जफर ने इस दिन पर गीत लिखे, जिन्हें होरी नाम दिया गया. ये उर्दू गीतों की एक खास श्रेणी ही बन गई. जफर का लिखा एक होरी गीत यानी फाग आज भी होली पर खूब गाया जाता है- क्यों मो पे रंग की मारी पिचकारी,देखो कुंवरजी दूंगी मैं गारी. इस अंतिम मुगल शासक का ये भी मानना था कि होली हर मजहब का त्योहार है. एक उर्दू अखबार Jam-e-Jahanuma ने साल 1844 में लिखा कि होली पर जफर के काल में खूब इंतजाम होते थे. टेसू के फूलों से रंग बनाया जाता और राजा-बेगमें-प्रजा सब फूलों का रंग खेलते थे.
लखनवी होली भी खूब थी
लखनऊ शहर की होली भी दिल्ली की होली से कम रंगीन नहीं थी. वहां के शासक नवाब सआदत अली खान और असिफुद्दौला के बारे में कहा जाता है कि वे होली के दिन की तैयारियों में करोड़ों रुपए लगा देते थे. हालांकि यहां पर रंग के साथ अय्याशियों का जिक्र भी मिलता है. माना जाता है कि नवाब इस रोज नाचने वाली लड़कियों को बुलवाकर संगीत की महफिलें सजाते और उनपर सोने के सिक्कों और कीमती रत्नों की बौछार कर देते थे. मशहूर कवि मीर तकी मीर (1723- 1810) में नवाब असिफुद्दौला के होली खेलने पर होरी गीत लिखा था.
मुगल शासकों के दौर में होली के लिए अलग से रंग तैयार होते
फूलों के रंग और इत्र
मुगल शासकों के दौर में होली के लिए अलग से रंग तैयार होते. इसके लाल बौराए टेसू के फूल दिनों पहले से इकट्ठा होते और उन्हें उबालकर ठंडा करके पिचकारियों या हौद में भरा जाता था. हरम (जहां मुस्लिम रानियां रहा करतीं) में भी पानी की बजाए हौदों में फूलों का रंग या गुलाबजल भर दिया जाता. सुबह से ही होली का जश्न शुरू हो जाता था. बादशाह पहले बेगमों और फिर प्रजा के साथ रंग खेलते. होली पर एक और इंतजाम महलों में होता था. यहां एक खास जगह पर राजा-प्रजा खेलने को इकट्ठा होते, इस जगह लगातार गुलाबजल और केवड़ा जैसे इत्र से सुगंधित फौवारे चलते होते थे. पूरे दिन किसी न किसी की तैनाती होती थी कि हौदों और फौवारों में रंगीन पानी और इत्र की कमी न होने पाए.
बेगमों और नवाबों पर बनी तस्वीरें
अकबर के जोधाबाई और जहांगीर के नूरजहां के साथ होली खेलने पर कई कलाकारों की तस्वीरें हैं. इनमें गोवर्धन और रसिक का नाम सबसे पहले आता है, जिन्होंने जहांगीर को नूरजहां के साथ रंग खेलते उकेरा था. यहां तक कि बहुत से मुस्लिम कवियों ने भी अपनी कविताओं में मुगल शासकों के अपनी बेगमों और आवाम के साथ होली खेलने का वर्णन किया है. इनमें अमीर खुसरो, इब्राहिम रसखान, महजूर लखनवी, शाह नियाज और नजीर अकबराबादी जैसे नाम मुख्य हैं.
इस मौके पर ज्यादातर सूफी मठों में रंग खेला जाता था (सांकेतिक तस्वीर)
सूफी संतों ने की शुरुआत
अमीर खुसरो खुद ही होली खेलने का शौक रखते थे. वे गुलाबजल और फूलों के रंग की होली खेला करते थे. रंगों के इस उत्सव पर खुसरो ने कई सूफियाना गीत लिखे. इनमें- आज रंग है री, आज रंग है, मोरे ख्वाजा के घर आज रंग है, आज भी न सिर्फ होली, बल्कि आम मौकों पर भी सुना जाता है. मुस्लिम सूफी कवियों ने इसे ईद-ए-गुलाबी नाम दिया. इस मौके पर ज्यादातर सूफी मठों में रंग खेला जाता था. इतिहास के पहले धर्मनिपरेक्ष माने जाने वाले सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने इसे सबसे पहले अपने मठ में मनाया. इसके बाद से ये सूफी संतों का पसंदीदा त्योहार बन गया. आज भी होली सूफी कल्चर का हिस्सा है और हर तीर्थ पर सालाना जलसे के आखिरी रोज ‘रंग’ पर्व मनाया जाता है.
मुगलकालीन सल्तनत के आखिरी वारिस इब्राहिम आदिल शाह और वाजिद अली शाह होली पर मिठाइयां और ठंडाई बांटा और खुद पिया करते थे. हालांकि मुगलिया सल्तनत के खात्मे के साथ होली पर हिंदू-मुस्लिमों के इकट्ठा होने और साथ रंग खेलने का रिवाज खत्म होता चला गया. इसके बावजूद तब रचे गए होरी और फाग अब भी खूब पसंद किए जाते हैं.
